Saturday, April 3, 2010

मसखरा

जो मैं हूँ नहीं वो क्यूँ बनता हूँ ,
क्यूँ सदा दूजो को छलता हूँ,
क्या सचमुच, ज़िन्दगी को समझा
इतना आसान मैंने कि
हँस के यूँ ही बीत जाएगी
तो फिर क्या, वो संजीदगी
मेरे एकाकीपन की
व्यर्थ ऐसे ही खो जाएगी
संवेदनाओं को ओढाकर आवरण
अंत:करण को छोड़ व्यथित
मुखौटा ठहाकों का किया क्यूँ धारण ?
प्रफ्फुलित रह हर्षित करूँ सभी को
ग़मों का मेरे ना हो भान किसी को
हाँ! यही तो चाहा था मैंने
परन्तु ये क्या! इच्छित का
अंशभर भी तो पाया ना मैंने
अस्तित्व ही मेरा अब तो है खो गया
अंतर्मन भी जैसे हो सो गया
लगता है मैं सचमुच बदल गया हूँ
परार्थ का चिंतन करने वाला, मैं,
स्वार्थी कैसे हो गया हूँ
अपनी क्षणिक भावनाओं की खातिर
दूसरों का अहं ठेसाना
स्वार्थ ही तो है
और ये गुनाह मैनें किया है
मुस्कान मधु की आड़ में मैंने
कर्कश कहकहा लगाया है
समीप जाकर कान में जैसे
चीखा है चिल्लाया है
बैठ अकेला मैं हूँ अब ये सोच रहा
हंसना भी मेरा जब ना हर्षाता उनको
फिर मैं ही क्यूँ , यूँ , हंसता हूँ
अकारण कहकहे लगाकर,
मसखरा मैं क्यूँ बनता हूँ,
क्यूँ ? दूजों को छलता हूँ..........
------ गौतम प्रिय

2 comments:

  1. gautam bhai...ye to samajhna mushkil hai...par aap to aise na the....es chupe hue kalakaar ko salaam
    ek gana yaad aata hai
    jane walon jara mud ke dekho mujhe
    ek insaan hoon main tumhari tarah............
    ab to jaldi hi milna hoga aapse

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  2. kai din hue in galiyaro mein aapki sayari nahi gunji...kyu khamosh ho gaye woh chilman jo kabhi roshan thhe.....abhi likha hai aapki nazar...

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